गुरुवार, 14 अक्टूबर 2021

मौलिक कर्त्तव्य

 

                                मौलिक कर्त्तव्य

चर्चा में क्यों?

भारत सरकार ने संविधान दिवस की 70वीं वर्षगाँठ के अवसर पर ‘संविधान से समरसता’ कार्यक्रम के तहत मौलिक कर्त्तव्यों के प्रति जागरूकता फैलाने का निश्चय किया है।

मौलिक कर्त्तव्य (Fundamental Duties):

fUNDAMENTAL DUTIES

  • स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर वर्ष 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा मौलिक कर्त्तव्यों को संविधान में शामिल किया गया।
  • इसके तहत संविधान में एक नए भाग IV को जोड़ा गया। संविधान के इस नए भाग में अनुच्छेद 51 क जोड़ा गया जिसमें 10 मौलिक कर्त्तव्यों को रखा गया था। वर्ष 2002 में 86वें संविधान संशोधन द्वारा एक और मौलिक कर्त्तव्य को जोड़ा गया-
  1. संविधान का पालन करें और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रीय गान का आदर करें।
  2.  
  3. स्वतंत्रता के लिये राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखें और उनका पालन करें।
  4.  
  5. भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करें तथा उसे अक्षुण्ण रखें।
  6.  
  7. देश की रक्षा करें और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करें।
  8.  
  9. भारत के सभी लोगों में समरसता और समान भातृत्व की भावना का निर्माण करें जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग आधारित सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हैं।
  10.  
  11. हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्त्व समझें और उसका परिरक्षण करें।
  12.  
  13. प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव आते हैं, रक्षा करें और संवर्द्धन करें त्तथा प्राणीमात्र के लिये दया भाव रखें।
  14.  
  15. वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करें।
  16.  
  17. सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें।
  18.  
  19. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करें जिससे राष्ट्र प्रगति की और निरंतर बढ़ते हुए उपलब्धि की नई ऊँचाइयों को छू ले।
  20.  
  21. 6 से 14 वर्ष तक की आयु के बीच के अपने बच्चों को शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराना। यह कर्त्तव्य 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा जोड़ा गया।

42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1976: 

     सबसे महत्त्वपूर्ण संशोधन माना जाता है। इसे लघु संविधान के रूप में जाना जाता है। इसके तहत कुछ अन्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण संशोधन किये गए-

  • इस संशोधन के तहत भारतीय संविधान में तीन नए शब्द ‘समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता’ जोड़े गए।
  • इसमें राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह की लिये बाध्यता का उपबंध शामिल किया गया।
  • इसके तहत संवैधानिक संशोधन को न्यायिक प्रक्रिया से बाहर किया गया और नीति निर्देशक तत्त्वों को व्यापक बनाया गया।
  • शिक्षा, वन, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, नाप-तौल और न्याय प्रशासन तथा उच्चतम और उच्च न्यायालय के अलावा सभी न्यायालयों के गठन और संगठन के विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया गया।

संविधान दिवस:

संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को संविधान के प्रारूप को पारित किया गया, इस दिन को भारत में संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।

रविवार, 5 सितंबर 2021

मौलिक अधिकार

                                                     मौलिक अधिकार

मौलिक अधिकारों के बारे में:

  • संविधान के भाग III (अनुच्छेद 12-35 तक) में मौलिक अधिकारों का विवरण है।
  • संविधान के भाग III कोभारत का मैग्नाकार्टा की संज्ञा दी गई है।
    • ‘मैग्नाकार्टा' अधिकारों का वह प्रपत्र है, जिसे इंग्लैंड के किंग जॉन द्वारा 1215 में सामंतों के दबाव में जारी किया गया था। यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित पहला लिखित प्रपत्र था।
  • मौलिक अधिकार: भारत का संविधान छह मौलिक अधिकार प्रदान करता है:
    • समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
    • स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
    • शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
    • धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
    • संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
    • संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
  • मूलतः संविधान में संपत्ति का अधिकार (अनुच्छेद 31) भी शामिल था। हालाँकि इसे 44वें संविधान अधिनियम, 1978 द्वारा मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया था।
    • इसे संविधान के भाग XII में अनुच्छेद 300 (A) के तहत कानूनी अधिकार बना दिया गया है।
  • मौलिक अधिकारों से असंगत विधियाँ: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13 घोषित करता है कि मौलिक अधिकारों से असंगत या उनका अल्पीकरण करने वाली विधियाँ शून्य होंगी।
    • यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32) और उच्च न्यायालयों (अनुच्छेद 226) को प्राप्त है।
      • हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले (1973) में कहा कि मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर संवैधानिक संशोधन को चुनौती दी जा सकती है।
  • रिट क्षेत्राधिकार: यह न्यायालय द्वारा जारी किया जाने वाला एक कानूनी आदेश है।
    • सर्वोच्च न्यायालय (अनुच्छेद 32) एवं उच्च न्यायालय (अनुच्छेद 226) रिट जारी कर सकते हैं। ये हैं- बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण एवं अधिकार पृच्छा। 

मौलिक अधिकारों की विशेषताएँ:

  • संविधान द्वारा संरक्षित: सामान्य कानूनी अधिकारों के विपरीत मौलिक अधिकारों को देश के संविधान द्वारा गारंटी एवं सुरक्षा प्रदान की गई है।
    • कुछ अधिकार सिर्फ नागरिकों के लिये उपलब्ध हैं, जबकि अन्य सभी व्यक्तियों के लिये उपलब्ध हैं चाहे वे नागरिक, विदेशी या कानूनी व्यक्ति हों जैसे- परिषद एवं कंपनियाँ।
  • ये स्थायी नहीं हैं। संसद इनमें कटौती या कमी कर सकती है लेकिन संशोधन अधिनियम के तहत, न कि साधारण विधेयक द्वारा।
    • ये असीमित नहीं हैं, लेकिन वाद योग्य हैं।
      • राज्य उन पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है। हालाँकि कारण उचित है या नहीं इसका निर्णय अदालत करती है।
  • ये न्यायोचित हैं। जब भी इनका उल्लंघन होता है ये व्यक्तियों को अदालत जाने की अनुमति देते हैं।
    • मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के मामले में कोई भी पीड़ित व्यक्ति सीधे सर्वोच्च न्यायालय की शरण में जा सकता है।
  • अधिकारों का निलंबन: राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान (अनुच्छेद 20 और 21 प्रत्याभूत अधिकारों को छोड़कर) इन्हें निलंबित किया जा सकता है।
    • इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 19 में उल्लिखित 6 मौलिक अधिकारों को उस स्थिति में स्थगित किया जा सकता है, जब युद्ध या विदेशी आक्रमण के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की गई हो। इन्हें सशस्त्र विद्रोह (आंतरिक आपातकाल) के आधार पर स्थगित नहीं किया जा सकता है।
  • सशस्त्र बलों, अर्द्ध-सैनिक बलों, पुलिस बलों, गुप्तचर संस्थाओं और ऐसी ही अन्य सेवाओं के क्रियान्वयन पर संसद प्रतिबंध आरोपित कर सकती है (अनुच्छेद 33)।
    • ऐसे इलाकों में भी इनका क्रियान्वयन रोका जा सकता है, जहाँ फौजी कानून का मतलब ‘सैन्य शासन’ से है, जो असामान्य परिस्थितियों में लगाया जाता है।

मौलिक अधिकार (नागरिकों और विदेशियों को प्राप्त अधिकार) (शत्रु देश के लोगों को छोड़कर)

केवल नागरिकों को प्राप्त मौलिक अधिकार, जो विदेशियों को प्राप्त नहीं है

  • कानून के समक्ष समता।
  • अपराधों के दोष सिद्धि के संबंध में संरक्षण।
  • प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण।
  • प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार।
  • कुछ मामलों में गिरफ्तारी और नज़रबंदी के खिलाफ संरक्षण।
  • बलात् श्रम एवं अवैध मानव व्यापार के विरुद्ध प्रतिषेध।
  • कारखानों में बच्चों के नियोजन पर प्रतिबंध।
  • धर्म की अभिवृद्धि के लिये प्रयास करने की स्वतंत्रता।
  • धार्मिक कार्यों के  प्रबंधन की स्वतंत्रता।
  • किसी धर्म को प्रोत्साहित करने हेतु कर से छूट।
  • कुछ विशिष्ट संस्थानों में धार्मिक आदेशों को जारी करने की स्वतंत्रता।
  • धर्म, मूल वंश, लिंग और जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध।
  • लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता।
  • अनुच्छेद 19 में उल्लिखित स्वतंत्रता के छह मौलिक अधिकारों का संरक्षण।
  • अल्पसंख्यकों की भाषा, लिपि और संस्कृति का संरक्षण।
  • शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार।

मौलिक अधिकार:

Rights

समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 और 18):

  • विधि के समक्ष समता: अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा।
    • प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह देश का नागरिक हो या विदेशी सब पर यह अधिकार लागू होता है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति शब्द में विधिक व्यक्ति अर्थात् संवैधानिक निगम, कंपनियाँ, पंजीकृत समितियाँ या किसी भी अन्य प्रकार का विधिक व्यक्ति सम्मिलित है।
    • अपवाद: अनुच्छेद 361 के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने कार्यकाल में किये गए किसी कार्य या लिये गए किसी निर्णय के प्रति देश के किसी भी न्यायालय में जवाबदेह नहीं होंगे। राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध उसकी पदावधि के दौरान किसी न्यायालय में किसी भी प्रकार की दंडात्मक कार्यवाही प्रारंभ या चालू नहीं की जा सकती है।
      • अनुच्छेद 361-A के अनुसार, कोई भी व्यक्ति यदि संसद या राज्य विधानसभा के दोनों सदनों या दोनों में से किसी एक की सत्य कार्यवाही से संबंधित विषय-वस्तु का प्रकाशन समाचार-पत्र में करता है तो उस पर किसी भी प्रकार का दीवानी या फौजदारी मुकदमा देश के किसी भी न्यायालय में नहीं चलाया जा सकता है।
      • अनुच्छेद 105 के अनुसार, संसद या उसकी किसी समिति में संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। 
      • अनुच्छेद 194 के अनुसार, राज्य के विधानमंडल में या उसकी किसी समिति में विधानमंडल के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिये गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।
      • विदेशी संप्रभु (शासक), राजदूत एवं कूटनीतिज्ञ, दीवानी एवं फौजदारी मुकदमों से मुक्त होंगे।
  • भेदभाव पर रोकअनुच्छेद 15 में यह प्रावधान है कि राज्य द्वारा किसी नागरिक के प्रति केवल धर्म, मूल वंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान को लेकर विभेद नहीं किया जाएगा।
    • अपवाद: महिलाओं, बच्चों, सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों या अनुसूचित जाति या जनजाति के लोगों के उत्थान (जैसे- आरक्षण और मुफ्त शिक्षा तक पहुँच) के लिये कुछ प्रावधान किये जा सकते हैं।
  • सार्वजनिक नियोजन के विषय में अवसर की समानताभारतीय संविधान के अनुच्छेद 16 में राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिये अवसर की समता होगी।
    • अपवाद: राज्य नियुक्तियों में आरक्षण का प्रावधान करता है या किसी पद को पिछड़े वर्ग के पक्ष में बना सकता है जिसका कि राज्य में समान प्रतिनिधित्व नहीं है।
      • इसके अतिरिक्त किसी संस्था या इसके कार्यकारी परिषद के सदस्य या किसी भी धार्मिक आधार पर व्यवस्था की जा सकती है।
  • अस्पृश्यता का उन्मूलन: अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करने की व्यवस्था और किसी भी रूप में इसका आचरण निषिद्ध करता है। अस्पृश्यता से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा, जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा।
    • अस्पृश्यता के अपराध के दोषी व्यक्ति को संसद या राज्य विधानसभा के लिये चुनाव हेतु अयोग्य घोषित किया जाता है। इन अपराधों में शामिल हैं:
      • प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अस्पृश्यता का प्रचार।
      • किसी भी व्यक्ति को किसी भी दुकान, होटल, सार्वजनिक पूजा स्थल और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थान में प्रवेश करने से रोकना।
      • अस्पतालों, शैक्षणिक संस्थानों या छात्रावासों में सार्वजनिक हित के लिये प्रवेश से रोकना।
      • पारंपरिक, धार्मिक, दार्शनिक या अन्य आधारों पर अस्पृश्यता को उचित ठहराना।
      • अस्पृश्यता के आधार पर अनुसूचित जाति के व्यक्ति का अपमान करना।
  • उपाधियों का उन्मूलन: भारत के संविधान का अनुच्छेद 18 उपाधियों का अंत करता है और इस संबंध में चार प्रावधान करता है:
    • यह निषेध करता है कि राज्य सेना या शिक्षा संबंधी सम्मान के अलावा और कोई उपाधि प्रदान नहीं करेगा।
    • यह निषेध करता है कि भारत का कोई नागरिक विदेशी राज्य से कोई उपाधि प्राप्त नहीं करेगा।
    • कोई विदेशी, राज्य के अधीन लाभ या विश्वास के किसी पद को धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से कोई भी उपाधि भारत के राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं कर सकता है।
    • राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य से या उसके अधीन किसी रूप में कोई भेंट, उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं कर सकता है।

स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19, 20, 21 और 22):

  • 6 अधिकारों का संरक्षण: अनुच्छेद 19 सभी नागरिकों को स्वतंत्रता के छह अधिकारों की गारंटी देता है:
    • वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार
      • यह प्रत्येक नागरिक को अभिव्यक्ति दर्शाने, मत देने, विश्वास एवं अभियोग लगाने की मौखिक, लिखित, छिपे हुए मामलों पर स्वतंत्रता देता है।
    • शांतिपूर्वक सम्मेलन में भाग लेने की स्वतंत्रता का अधिकार
      • किसी भी नागरिक को बिना हथियार के शांतिपूर्वक संगठित होने का अधिकार है। इसमें सार्वजनिक बैठकों में भाग लेने का अधिकार एवं प्रदर्शन शामिल है। इस स्वतंत्रता का उपयोग केवल सार्वजनिक भूमि पर बिना हथियार के किया जा सकता है।
        • यह व्यवस्था हिंसा, अव्यवस्था, गलत संगठन एवं सार्वजनिक शांति भंग करने के लिये नहीं है।
    • संगम या संघ बनाने का अधिकार
    • इसमें राजनीतिक दल बनाने का अधिकार, कंपनी, साझा फर्म, समितियाँ, क्लब, संगठन, व्यापार संगठन या लोगों की अन्य इकाई बनाने का अधिकार शामिल है।
    • अबाध संचरण की स्वतंत्रता का अधिकार
      • संचरण की स्वतंत्रता के दो भाग हैं- आंतरिक (देश में निर्बाध संचरण), (अनुच्छेद 19) और बाहरी (देश के बाहर घूमने का अधिकार तथा देश में वापस आने का अधिकार), (अनुच्छेद 21)।
    • निवास का अधिकार
      • जनजातीय क्षेत्रों में उनकी संस्कृति भाषा एवं रिवाज के आधार पर बाहर के लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित किया जा सकता है। देश के कई भागों में जनजातियों को अपनी संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु नियम-कानून बनाने का अधिकार है।
    • व्यवसाय आदि की स्वतंत्रता का अधिकार
      • इस अधिकार में कोई अनैतिक कृत्य शामिल नहीं है, जैसे- महिलाओं या बच्चों का दुरुपयोग या खतरनाक (हानिकारक औषधियों या विस्फोटक आदि) व्यवसाय।
  • अपराध के लिये दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षणअनुच्छेद-20 किसी भी अभियुक्त या दोषी करार दिये गए व्यक्ति, चाहे वह देश का नागरिक हो या या विदेशी या कंपनी व परिषद का कानूनी व्यक्ति हो, को मनमाने और अतिरिक्त दंड से संरक्षण प्रदान करता है। इस संबंध में तीन व्यवस्थाएँ की गई हैं:
    • किसी भी व्यक्ति को अपराध के लिये तब तक दोषी नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि ऐसा कोई कार्य करते समय, (जो व्यक्ति अपराध के रूप में आरोपित है) किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है।
    • किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिये एक से अधिक बार  अभियोजित या दंडित नहीं किया जाएगा।
    • किसी भी अपराध के लिये अभियुक्त व्यक्ति को स्वंय अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा।
  • प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता: अनुच्छेद 21 में घोषणा की गई है कि किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं। यह अधिकार नागरिकों और गैर-नागरिकों दोनों के लिये उपलब्ध है।
    • प्राण या दैहिक स्वतंत्रता में अधिकार के कई प्रकार है- इसमें ‘प्राण के अधिकार’ को शारीरिक बंधनों में नहीं बाँधा गया है बल्कि इसमें मानवीय सम्मान और इनसे जुड़े अन्य पहलुओं को भी रखा गया है।
  • शिक्षा का अधिकार: अनुच्छेद 21(A) में घोषणा की गई है कि राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा।
    • यह प्रावधान केवल आवश्यक शिक्षा के एक मौलिक अधिकार के अंतर्गत है, न कि उच्च या व्यावसायिक शिक्षा के संदर्भ में।
    • यह प्रावधान 86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 के अंतर्गत किया गया था।
    • 86वें संशोधन से पहले भी संविधान में भाग IV के अनुच्छेद 45 के तहत बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान था।
  • निरोध (हिरासत) एवं गिरफ्तारी से संरक्षण: अनुच्छेद 22 किसी व्यक्ति को निरोध एवं गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान करता है।
    • हिरासत दो तरह की होती है- दंड विषयक और निवारक।
      • दंड विषयक हिरासत, एक व्यक्ति, जिसने अपराध स्वीकार कर लिया है और न्यायालय में उसे दोषी ठहराया जा चुका है, को दंड देती है।
      • निवारक हिरासत वह है, जिसमें बिना सुनवाई के न्यायालय में दोषी ठहराया जाए। 
    • अनुच्छेद 22 का पहला भाग साधारण कानूनी मामले से संबंधित है और इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
      • गिरफ्तार करने के आधार पर सूचना देने का अधिकार।
      • विधि व्यवसायी से परामर्श और प्रतिरक्षा करने का अधिकार।
      • दंडाधिकारी (मजिस्ट्रेट) के सम्मुख 24 घंटे के अंदर, यात्रा के समय को मिलाकर, पेश होने का अधिकार।
      • दंडाधिकारी द्वारा बिना अतिरिक्त निरोध के 24 घंटे में रिहा करने का अधिकार।
    • अनुच्छेद 22 का दूसरा भाग निवारक हिरासत मामले से संबंधित है। इस अनुच्छेद में नागरिक एवं विदेशी दोनों के लिये सुरक्षा उपलब्ध है और इसमें निम्नलिखित शामिल हैं:
      • किसी व्यक्ति की हिरासत अवधि तीन महीने से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती, जब तक कि सलाहकार बोर्ड (उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश) इस बारे में उचित कारण न बताएँ।
      • निरोध का आधार संबंधित व्यक्ति को बताया जाना चाहिये।
      • निरोध वाले व्यक्ति को यह अधिकार है कि निरोध के आदेश के विरुद्ध अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करें।

शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

Union and Its Territory

                                 Union and Its Territory

  • भारत के राज्‍य क्षेत्र में निम्‍नलिखित क्षेत्रों को शामिल किया गया जिसमें राज्‍यों के राज्‍य क्षेत्र, पहली अनुसूची में वर्णित संघ राज्‍य क्षेत्र और ऐसे अन्‍य राज्‍य क्षेत्र जो अर्जित किए जाएँ।

राज्‍यों का संघ

  • भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 1 में भारत को ”राज्‍यों का संघ” कहा गया है केंद्र शब्‍द का कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया है।
  • डी. डी. बसु के अनुसार भारत का संविधान एकात्‍मक तथा संघात्‍मक का सम्मिश्रण है।
  • के. सी. व्‍हीलर के अनुसार भारत का संविधान संघीय कम और एकात्‍मक अधिक है, उनके अनुसार यह अर्द्ध-संघीय है।
  • भारत में वर्तमान में 28 राज्‍य तथा 7 संघ राज्‍य क्षेत्र हैं। संघ राज्‍य क्षेत्रों में दिल्‍ली को राष्‍ट्रीय राजधानी क्षेत्र का अलग दर्जा प्रदान कर दिया गया है।
  • शक्तियों का केंद्र तथा राज्‍यों के बीच विभाजन किया गया है। संघ सूची में 99 विषय समवर्ती सूची में 52 तथा राज्‍य सूची में 61 विषय सम्मिलित हैं।
  • भारतीय संघ अवशिष्‍ट विषय केंद्र सरकार के पास हैं।
  • भारतीय संघ की इकाइयों (राज्‍यों) को अपना संविधान रखने की अनुमति नहीं है।
  • पर कुछ राज्‍यों को जैसे अनुच्‍छेद 370 में जम्‍मू-कश्‍मीर को विशेष स्थिति प्रदान की गयी है। इसी प्रकार अनुच्‍छेद 371 के अंतर्गत आन्‍ध्र प्रदेश, गुजरात, महाराष्‍ट्र, अनु. 371क के अंतर्गत नागालैण्‍ड, अनुच्‍छेद 371ख के अंतर्गत असम अनुच्‍छेद 371ग के अंतर्गत सिक्किम के लिए विशेष प्रावधान हैं।
  • भारतीय संघ की इकाइयों को विदेशों से सीधे व्‍यापार करने एवं ऋण लेने का भी अधिकार नहीं है।
  • भारतीय संघ के राज्‍य आर्थिक सहायता के लिए संघीय सरकार पर निर्भर करते हैं।
  • राष्‍ट्रीय आपातकाल घोषित होने के समय संपूर्ण व्‍यवस्‍था एकात्‍मक राज्‍य के रूप में कार्य करने लगती है।
  • भारतीय संघ व्‍यवस्‍था कनाडा की संघीय व्‍यवस्‍था से अधिक समानता रखती है। भारत में इकहरी नागरिकता प्राप्‍त है। संघ की इकाइयों को पृथक् नागरिकता प्राप्‍त नहीं हैं।
  • केंद्र सरकार को राज्‍यों की सीमाओं मे परिवर्तन का अधिकार है।
  • संसद राज्‍य सूची के विषय पर कानून बना सकती है, यदि वह राष्‍ट्रीय महत्‍व का हो या राष्‍ट्रपति शासन लागू हो।
  • यदि समवर्ती सूची के विषय पर राज्‍य तथा केंद्र दोनों की कानून बनाते हैं, तो केंद्र का कानून मान्‍य होता है।
  • आंध्र प्रदेश भाषायी आधार पर गठित होने वाला पहला राज्‍य था।

राज्‍यों के परिवर्तित नाम

पुराना नाम – नया नाम

  • मद्रास – तमिलनाडु
  • आंध्र – आंध्रप्रदेश
  • त्रावणकोर-कोचिन – केरल
  • मैसूर – कर्नाटक
  • संयुक्‍त प्रांत – उत्‍तरप्रदेश
  • लक्षद्वीप, मिनिकाय एवं अदिनी द्वीप समूह – लक्षद्वीप

नए राज्‍यों का प्रवेश या स्‍थापना

भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद 2 के अनुसार नए राज्‍यों के प्रवेश के संबंध में संसद को दो प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गई है:

  1. नए राज्‍यों को संघ में सम्मिलित करने की शक्ति।
  2. नए राज्‍यों की स्‍थापना करने की शक्ति।

प्रथम शक्ति ऐसे राज्‍यों से संबंधित है जो पहले से ही विद्यमान हैं अर्थात् अस्तित्‍व में हैं और दूसरी शक्ति भविष्‍य में अर्जित या स्‍थापित किए जाने वाले राज्‍यों से संबंधित है।

नये राज्‍यों के निर्माण की प्रक्रिया

  • अनुच्‍छेद 3 में नए राज्‍यों के निर्माण तथा पहले से विद्यमान राज्‍यों के क्षेत्रों, सीमाओं व नामों के परिवर्तन के संबंध मे प्रावधान है।
  • संसद साधारण बहुमत से पारित कानून द्वारा नए राज्‍यों के निर्माण तथा पहले से विद्यमान राज्‍यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन कर सकती है।
  • नए राज्‍यों के निर्माण तथा पहले से विद्यमान राज्‍यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन से संबंधित कोई भी विधेयक राष्‍ट्रपति की अनुशंसा के बिना संसद के किसी भी सदन में नहीं लाए जा सकते।
  • यदि राज्‍य-विधायिका उस निर्दिष्‍ट समय सीमा के अंदर अपना मत नहीं देती, तो समय-सीमा बढाई जा सकती है।

राज्‍यों का पुनर्गठन

  • स्‍वतंत्रता प्राप्‍त‍ि के बाद, विभिन्‍न क्षेत्रों से भाषा के आधार पर राज्‍यों के पुनर्गठन की माँग उठने लगी।
  • भाषा के आधार पर राज्‍यों के पुनर्गठन के मुद्दे पर अध्‍ययन करने के लिए संविधान सभा ने नवंबर 1947 में ‘एस. के. धर आयोग’ बैठाया।
  • ‘धर आयोग’ की सिफारिशों पर विचार करने के लिए 1948 के अपने जयपुर अधिवेशन में कांग्रेस ने तीन सदस्‍यों वाली समिति गठित की।
  • इसकें तीन सदस्‍यों, जवाहर लाल नेहरू, वल्‍लभभाई पटेल तथा पट्टाभिसीतारमैया के नाम पर यह समिति जे. वी. पी. समिति’ के नाम से प्र‍सिद्ध हुई।
  • इस समिति ने राज्‍यों के पुनर्गठन के लिए भाषा के आधार को स्‍वीकार नहीं किया।
  • इसने सुझाव दिया कि सुरक्षा, एकता तथा राष्‍ट्र की आर्थिक संपन्‍नता को राज्‍यों के पुनर्गठन का आधार होना चाहिए। इसकी सिफारिशों को 1949 में ‘कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने स्‍वीकार कर लिया, परंतु दक्षिण के राज्‍यों विशेषत: तेलुगू भाषी क्षेत्रों में भाषा के आधार पर राज्‍यों विशेषत: तेलुगू भाषी क्षेत्रों में भाषा के आधार पर राज्‍यों के पुनर्गठन की माँग जोर पकड़ने लगी।
  • चूँकि तेलुगू भाषी क्षेत्रों में आंदोलन हिंसक रूप लेने लगा, इसलिए कांग्रेस ने 1953 में तेलुगूभाषी क्षेत्रों का आंध्रप्रदेश राज्‍य के रूप में पुनर्गठन स्‍वीकार कर लिया।
  • इस समस्‍या के व्‍यापक अध्‍ययन के लिए भारत सरकार ने 1953 में फजल अली की अध्‍यक्षता में एक ‘राज्‍य पुनर्गठन आयोग’ बनाया।
  • आयोग के अन्‍य सदस्‍य थे – ह्दयनाथ कुँजरू तथा के. एम. पाणिक्‍कर।
  • 1955 में सौंपी गयी अपनी रिपोर्ट में आयोग ने भाषा को राज्‍यों के पुनर्गठन का आधार स्‍वीकार किया।
  • इसने विभिन्‍न श्रेणियों के 27 राज्‍यों का पुनर्गठन, 16 राज्‍यों व 3 केंद्रशासित प्रदेशों में करने का सुझाव दिया।
  • आयोग की अनुशंसाओं को प्रभावकारी बनाने के लिए संसद् ने ‘राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम, 1956’ पारित कर दिया।

नये राज्‍यों का निर्माण

  • नए राज्‍यों कें निर्माण के लिए अनेक माँगें हुई हैं, यथा – हरित प्रदेश (उत्‍तर प्रदेश), तेलगांना (आंध्र प्रदेश), विदर्भ (महाराष्‍ट्र), बोडोलैंड (असम), गोरखालैंड (पश्चिम बंगाल), कोडगु (कर्नाटक, पुडुचेरी), दिल्‍ली इत्‍यादि।
  • यह कहना अनावश्‍यक है कि राज्‍यों की उपर्युक्‍त सभी माँगें पूरी नहीं की जा सकती, क्‍योंकि इससे राज्‍यों की संख्‍या का विस्‍तार उस सीमा तक हो जाएगा, जिस सीमा तक वह संघीय व्‍यवस्‍था पर भारास्‍वरूप ही होगा। ऐसी माँगें, जहाँ एक ओर आर्थिक दृष्टि से असंभाव्‍य हैं, वहीं दूसरी ओर इनसे राष्‍ट्रीय एकता को खतरा होगा। यह आवश्‍यक नहीं है कि छोटे राज्‍यों का प्रशासन सुचारू रूप से चलाया जा सकता है, जैसा कि पूर्वोत्‍तर क्षेत्र, में देखा गया है कि कुछ राज्‍यों में जिलों की तुलना में मंत्रियों की संख्‍या अधिक है।
  • नए राज्‍यों के निर्माण में अनेक समस्‍याएँ है, यथा–उच्‍च न्‍यायालय, सचिवालय आदि संस्थाओं के निर्माण से संबंधित प्रशासनिक समस्‍याएँ, नयी राजधानी की स्‍थापना का व्‍यय इत्‍यादि।
  • इसके बावजूद भी संघीय संसद (Union Parliament) ने। उत्‍तरांचल (वर्तमान उत्‍तराखंड), झारखंड तथा छत्‍तीसगढ़ तीन नए राज्‍यों के निर्माण हेतु सन् 2000 में तीन अधिनियमों को पारित किया।

सन् 1950 के पश्‍चात बनाए गए राज्‍य

  • आंध्र प्रदेश –  आंध्र प्रदेश अधिनियम, 1953 द्वारा चेन्‍नई राज्‍य के कुछ क्षेत्रों को निकालकर बना भाषायी आधार पर पृथक् राज्‍य।
  • गुजरात, महाराष्‍ट्र – 1960 में मुम्‍बई राज्‍य को दो भागों गुजरात तथा महाराष्‍ट्र में विभाजित कर दिया गया।
  • केरल – त्रावण्‍कोर-कोचीन की जगह बनाया गया (राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 के द्वारा)।
  • कर्नाटक –  राज्‍य पुनर्गठन अधिनियम, 1956 द्वारा मैसूर राज्‍य से पृथक कर बनाया गया। राज्‍य अधिनियम 1973 में इसे कर्नाटक नाम दिया गया।
  • नागालैण्‍ड – नागालैण्‍ड राज्‍य अधिनियम, 1962 द्वारा असम राज्‍य से अलग बनाया गया नया राज्‍य।
  • हरियाणा – पंजाब पुनर्गठन अधिनियम, 1966 द्वारा पंजाब के कुछ क्षेत्रों को     निकालकर बनाया गया।
  • हिमाचल प्रदेश – हिमाचल संघ राज्‍य क्षेत्र को हिमाचल प्रदेश राज्‍य अधिनियम, 1970 द्वारा राज्‍य का दर्जा।
  • मेघालय – संविधान के 23वें संशोधन अधिनियम, 1969 द्वारा इसे अलग राज्‍य के भीतर एक उपराज्‍य बनाया गया, पूर्वोत्‍तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम 1971 द्वारा इसे पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्रदान किया गया।
  • मणिपुर, त्रिपुरा – पूर्वोत्‍तर क्षेत्र पुनर्गठन अधिनियम, 1971 द्वारा संघ राज्‍य क्षेत्र से पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्रदान किया गया।
  • सिक्किम – 36वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1975 द्वारा इसे पूर्ण राज्‍य की मान्‍यता प्रदान की गयी।
  • मिजोरम – मिजोरम राज्‍य अधिनियम, 1986 द्वारा पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्रदान किया गया।
  • अरूणाचल प्रदेश – अरूणाचल प्रदेश अधिनियम, 1986 द्वारा संघ राज्‍य क्षेत्र से पूर्ण राज्‍य का दर्जा प्रदान किया गया।
  • गोवा – गोवा, दमन और दीव पुनर्गठन अधिनियम 1987 द्वारा संघ दमन और दीव राज्‍य क्षेत्र बना रहने दिया तथा गोवा को निकालकर राज्‍य का दर्जा प्रदान किया।
  • छत्‍तीसगढ़ – यह राज्‍य मध्‍यप्रदेश से अलग करके बनाया गया है (84वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा सृजित)
  • उत्‍तराखंड – यह राज्‍य उत्‍तरप्रदेश से अलग करके बनाया गया है। (84वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा सृजित)। पहले इसका नाम उत्‍तरांचल था, जिसे बाद मे बदलकर उत्‍तराखंड कर दिया गया।
  • झारखंड – यह राज्‍य बिहार राज्‍य से अलग करके बनाया गया है। (84वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा सृजित)।

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दोस्तो आज की हमारी पोस्ट भारतीय राजव्यवस्था ( Indian Polity ) से संबंधित है ! इस पोस्ट में हम आपको Indian Polity के एक Topic संघ एवं राज्‍य क्षेत्र ( Union and its Territory Questions and Answers )  के बारे में बताऐंगे ! Indian Polity से संबंधित अन्य टापिक के बारे में भी पोस्ट आयेंगी , व अन्य बिषयों से संबंधित पोस्ट भी आयेंगी , तो आपसे निवेदन है कि हमारी बेवसाईट को Regularly Visit करते रहिये !

The Union and Its territories is a compilation of laws pertaining to the constitution of India as a country and the union of states that it is made of.

This part of the constitution contains the law in the following examples=establishment, renaming, merging or altering the borders of the states or union territories. It also physically defines the words union / central government / government of India, states, territory of India, territory of a state, union territories and acquired territories which are used frequently in the constitution. This part contains four articles. These articles were invoked when West Bengal was renamed, and for formation of relatively new states such as JharkhandChhattisgarhSikkim and recently Telangana.[1]

Articles 1 & 2[edit]

Article 1 of the constitution says that India, that is Bharat, shall be a union of states and the territory

Article -2 says that "no state can be separated from the country".

The acquired territories can be converted in to a state/states as per Article 2. Jammu and Kashmir get converted to Union territory in 2019. Ladakh was also so converted.

Sikkim was a special case which was included as a completely new type of statehood under a new Article 2A and conditions mentioned in tenth schedule, and was called 'associate state'. But this experiment failed and Sikkim was later added to Indian Union by Constitutional Amendment Act (1975).

With the seventh amendment to the constitution in 1956, the concept of Union territory is brought in to administer areas which are very small in area or governed by international agreements or politically not evolved for locally elected governance. The representation of seats in the council of states (Rajya Sabha) shall be as given in Schedule 4 of the constitution. The territorial waters and the exclusive economic zones shall also become part of the territories of states or union territories in the absence of any listing of them separately in Schedule 1 and 4 of the constitution. There is no separate representation in parliament though people inhabit on these offshore areas for exploiting resources such as fisheries, oil and gas, etc.

The constitution (40th amendment) act, 1976, was passed during the emergency period and received Presidential assent on 27 May 1976. It amended the Article 297 (earlier also amended by the constitution [15th amendment] act, 1963) so as to vest in Union of India all lands, minerals, and other things of value underlying the ocean within the territorial waters or continental shelf or exclusive economic zone of India.[2]

The territorial waters, continental shelf, exclusive economic zone and other maritime zones act, 1976 was enacted by the Indian government to notify the sovereign rights on these areas for dealings with other countries.[3] However, these maritime zones are also parts of the states as they are not separately listed in schedule 1 of the constitution and the role of union government is limited to mainly defending the offshore territory from external threats.[4][5]

States are not debarred from imposing taxes or royalty on the minerals extracted from the territorial waters and the exclusive economic zone (which are under states jurisdiction) as per serial no. 50 of state list in seventh schedule (Taxes on mineral rights subject to any limitations imposed by Parliament by law relating to mineral development) of the constitution.[6]

Article 3[edit]

Article 3 talks about Formation of new States and alteration of areas, boundaries or names of existing States:

Article 3 says: Parliament may by law:

(a) form a new State by separation of territory from any State or by uniting two or more States or parts of States or by uniting any territory to a part of any State (b) increase the area of any State; (c) diminish the area of any State; (d) alter the boundaries of any State; (e) alter the name of any State;

Provided that no Bill for the purpose shall be introduced in either House of Parliament except on the recommendation of the President and unless, where the proposal contained in the Bill affects the area, boundaries or name of any of the States, the Bill has been referred by the President to the Legislature of that State for expressing its views thereon within such period as may be specified in the reference or within such further period as the President may allow and the period so specified or allowed has expired

Explanation I: In this article, in clauses (a) to (e), State includes a Union territory, but in the proviso, State does not include a Union territory

Explanation II: The power conferred on Parliament by clause (a) includes the power to form a new State or Union territory by uniting a part of any State or Union territory to any other State or Union territory

Article 4[edit]

Article 4 is invoked when a law is enacted under Article 2 or 3 for the marginal, incidental and the consequential provisions needed for changing boundary of a state or union territory. As per Article 4 (2)no such law framed under Article 4 (1), shall be deemed to be an amendment of the constitution for the purposes of article 368.

Before 1971, there were few articles [Articles 4 (2), 169 (3)-1962, 239A (2)-1962, 244A (4)-1969, para 7(2) of Schedule V and para 21(2) of Schedule VI] other than Article 368 which permitted marginal amendments to the constitution. However Article 4 (2) got superseded by the 24th amendment in the year 1971 to Article 368 (Power of Parliament to amend the Constitution and Procedure there for). Article 368 (1) was added by 24th amendment which says that notwithstanding anything in this Constitution,[7] parliament may in exercise of its constituent power amend by way of addition, variation or repeal any provision of this Constitution in accordance with the procedure laid down in this article.[8] Constituent power means eligibility to frame constitution and make amendments to the constitution.[9] Supreme court observed that article 368 (1) clearly defined the scope of constituent power which is power to make amendments, variations or deletions to the constitution.[10] Constituent power conferred on the parliament must be exercised by it in accordance with the procedure given in article 368 (2) and can not be subjected to an inferior legislative procedure under article 4 or delegated to an outside agency.[10] Thus there is only one procedure for bringing an amendment (including of marginal nature) to the constitution which is the procedure given in Article 368. However, these superseded articles [Articles 4 (2), 169 (3), 239A (2), 244A (4), 356 (1)c, para 7(2) of Schedule V and para 21(2) of Schedule VI] have been in use for enacting laws for not contesting their validity in the court of law.

मौलिक कर्त्तव्य

                                  मौलिक कर्त्तव्य चर्चा में क्यों? भारत सरकार ने संविधान दिवस की 70वीं वर्षगाँठ के अवसर पर ‘संविधान से समरसत...