Nehru Report, 1928
नेहरू रिपोर्ट भारत के लिए प्रस्तावित नए अधिराज्य के संविधान की रूपरेखा थी। 28 अगस्त, 1928 को जारी यह रिपोर्ट ब्रितानी सरकार के भारतीयों के एक संविधान बनाने के अयोग्य बताने की चुनौती का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व में दिया गया सशक्त प्रत्युत्तर था। मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित इस प्रारूप निर्मात्री समिति में २ मुसलमान सहित ९ सदस्य थे। जवाहरलाल नेहरु इसके सचिव थे। रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि शरारतभरी साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति त्याग दी जाय ताकि उसके स्थान पर अल्पसंख्यकों के लिए उनकी जनसंख्या के आधार पर स्थान आरक्षित कर दिया जाए। इसने समस्त भारत के लिए एक इकाई वाला संविधान प्रस्तुत किया जिसके द्वारा भारत को केंद्र तथा प्रांतों में पूर्ण प्रादेशिक स्वायत्तता मिले। ब्रितानी सरकार ने इसे अत्यधिक प्रगतिशील कहकर 1930 मे मानने से इनकार कर दिया था।
Macdonald's Communal Award (1932)
16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रामसे मैकडोनाल्ड द्वारा भारत में उच्च वर्ग, निम्न वर्ग, मुस्लिम, बौद्ध, सिख, भारतीय ईसाई, एंग्लो-इंडियन, पारसी और अछूत (दलित) आदि के लिए अलग-अलग चुनावक्षेत्र के लिए ये निर्णय दिया, जिससे सभी वर्गों के लोगो को प्रतिनिधित्व मिलता, लेकिन इसे गलत भारत में उच्च जातियों के लोगों ने सांप्रदायिक का नाम देकर विरोध किया। [1]भारत में राष्ट्रवादी भावना के विकास को दबाने के लिए अंग्रेजों ने कूटनीति का सहारा लिया। भारतीयों की एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजी सरकार ने बांटो और राज करो की नीति पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया। देशी राजा, जमींदारों और मुस्लिम लीग का समर्थन प्राप्त हुआ था। लेकिन उच्च जातियों के लोगों ने कहा कि यह अवार्ड देश के राष्ट्रीय आंदोलन को अंग्रेज लोग तोडना चाहते है।
अतः इसका लाभ उठाकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री रमसे मैकडोनाल्ड ने अब सांप्रदायिक समस्या सुलझाने में अधिक रूचि देना आरंभ किया। आगा खां, बी आर अंबेडकर भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सरकार की मदद कर रहे थे।[2]अतः ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों के बीच की खाई और बढ़ाने का निश्चय किया। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर ब्रिटिश प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक निर्णय की घोषणा किया था, जिसमें निम्नलिखित व्यवस्था की घोषणा की गई-
• प्रांतीय व्यवस्थापिका सभाओं की सदस्य संख्या बढ़ाकर दोगुनी कर दी गई गयी।
• अल्पसंख्यतरा विशेष सीटों वाले संप्रदाय की संख्या बढ़ा दी गई। इसके अंतर्गत अब मुसलमानों, सीखो, दलितों, पिछड़ी जातियों, भारतीय ईसाईयों, एंग्लो इंडियनों को रखा गया।
• अल्पसंख्यक के लिए अलग निर्वाचन की व्यवस्था की गई।
• दलितों को हिंदुओं से अलग मानकर उनके लिए भी पृथक निर्वाचन तथा प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया।
• स्त्रियों के लिए भी कुछ स्थान आरक्षित किए गए।
इसेसे गांधीजी बहुत दुखी हुए क्योंकि सरकार के इस सांप्रदायिक निर्णय से वह खुश नहीं थे। केंद्रीय व्यवस्थापिका के संगठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया। हिंदुओं में फूट डालने के उद्देश्य से दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की व्यवस्था की गई थी। इसमें मुस्लिम सांप्रदायिकता को विशेष बढ़ावा दिया गया था 18 अगस्त 1932 ईस्वी को मैकडोनाल्ड को एक पत्र लिखकर गांधी जी ने इस निर्णय का विरोध किया। उन्होंने यह भी चेतावनी दे दिया कि दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की प्रणाली समाप्त नहीं की गई तो वे 20 सितंबर 1932 ई.से आमरण अनशन शुरू कर देंगे। सरकार ने गांधीजी के इस पत्र पर कोई ध्यान नहीं दिया बल्कि उन्हीं पर आरोप लगाया कि वह दलितों का उत्थान नहीं चाहते। दलितों के नेता डॉक्टर बी. आर. अंबेडकर भी सांप्रदायिक निर्णय के पक्ष में थे। गांधीजी 20 सितंबर 1932 ईस्वी को येरवदा जेल में आमरण अनशन आरंभ कर दिया।
गांधी को डर था कि इससे हिंदू समाज बिखर जाएगा। हालांकि, अल्पसंख्यक समुदायों में से कई ने सांप्रदायिक पुरस्कार का समर्थन किया था, खासकर दलितों के नेता डॉ. बी. आर. अंबेडकर।[3]अम्बेडकर के मुताबिक, गांधी मुसलमानों और सिखों के अलग-अलग निर्वाचक मण्डलों को देने के लिए तैयार थे। लेकिन गांधी सिर्फ जातियों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल को देने के लिए अनिच्छुक थे। वह पृथक निचली जाति के प्रतिनिधित्व के कारण कांग्रेस और हिंदू समाज के अंदर विभाजन से डरता था। लेकिन अम्बेडकर ने निम्न जाति के लिए अलग मतदाताओं के लिए आग्रह किया। लंबी बातचीत के बाद, गांधी ने एक हिंदू मतदाता के लिए अम्बेडकर के साथ एक समझौता किया, जिसमें अछूतों की सीट आरक्षित थीं। इसे पूना संधि कहा जाता है। मुस्लिम, बौद्ध, सिख, भारतीय ईसाई, एंग्लो-इंडियन, यूरोपीय जैसे अन्य धर्मों के लिए मतदाता अलग-अलग रहे।
इस 'पुरस्कार' के परिचय के पीछे कारण यह था कि रामसे मैकडोनाल्ड ने खुद को 'भारतीयों का दोस्त' माना था और इस तरह वे भारत के मुद्दों को हल करना चाहते थे। तीन गोलमेज सम्मेलन (भारत) के द्वितीय की विफलता के बाद 'सांप्रदायिक पुरस्कार' की घोषणा की थी।
Poona Pact, 1932
पूना पैक्ट अथवा पूना समझौता भीमराव आम्बेडकर एवं महात्मा गांधी के मध्य पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल में 24 सितम्बर, 1932 को हुआ था।[1] अंग्रेज सरकार ने इस समझौते को सांप्रदायिक अधिनिर्णय (कॉम्युनल एवार्ड) में संशोधन के रूप में अनुमति प्रदान की।
समझौते में दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचक मंडल को त्याग दिया गया लेकिन दलित वर्ग के लिए आरक्षित सीटों की संख्या प्रांतीय विधानमंडलों में 71 से बढ़ाकर 148 और केन्द्रीय विधायिका में कुल सीटों की 18% कर दीं गयीं।
पृष्ठभूमि[संपादित करें]
द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श के फल स्वरूप कम्युनल अवार्ड की घोषणा की गई। जिसके तहत भीमराव आंबेडकर द्वारा उठाई गयी राजनीतिक प्रतिनिधित्व की माँग को मानते हुए दलित वर्ग को दो वोटों का अधिकार मिला। एक वोट से दलित अपना प्रतिनिधि चुनेंगे तथा दूसरी वोट से सामान्य वर्ग का प्रतिनिधि चुनेंगे। इस प्रकार दलित प्रतिनिधि केवल दलितों की ही वोट से चुना जाना था। दूसरे शब्दों में उम्मीदवार भी दलित वर्ग का तथा मतदाता भी केवल दलित वर्ग के ही।[2]
16 अगस्त 1932 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्मजे मैक्डोनल्ड ने साम्र्पदायिक पंचाट की घोषणा की जिसमें दलितो सहित 11 समुदायों को पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान किया गया।
दलितों के लिए की गई पृथक निर्वाचक मंडल की व्यवस्था का गांधीजी ने विरोध किया 20 सितंबर 1932 को गांधी जी ने अनशन प्रारंभ कर दिया 26 सितंबर 1932 को राजेंद्र प्रसाद व मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से गांधी जी और अंबेडकर के मध्य पूना समझौता हुआ जिसमें संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था के अंतर्गत दलितों के लिए स्थान आरक्षित रखने पर सहमति बनी इस समझौते को पूना पैक्ट भी कहा जाता है
दलित प्रतिनिधि को चुनने में गैर दलित वर्ग अर्थात सामान्य वर्ग का कोई दखल ना रहा। परन्तु दूसरो ओर दलित वर्ग अपनी दूसरी वोट के माध्यम से सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने से अपनी भूमिका निभा सकता था। गाँधी इस समय पूना की येरवडा जेल में थे। कम्युनल एवार्ड की घोषणा होते ही पहले तो उन्होंने ब्रिटिश प्रधानमन्त्री को पत्र लिखकर इसे बदलवाने का प्रयास किया, परंतु जब उन्होंने देखा के यह निर्णय बदला नहीं जा रहा, तो उन्होंने मरण व्रत रखने की घोषणा कर दी।[3]
24 सितम्बर 1932 को साय पांच बजे यरवदा जेल पूना में गाँधी और डॉ॰ आम्बेडकर के बीच समझौता हुआ, जो बाद में पूना पैक्ट के नाम से मशहूर हुआ। इस समझौते में डॉ॰ आम्बेडकर को कम्युनल अवॉर्ड में मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को छोड़ना पड़ा तथा संयुक्त निर्वाचन (जैसा कि आजकल है) पद्धति को स्वीकार करना पडा, परन्तु साथ हीं कम्युनल अवार्ड से मिली 71 आरक्षित सीटों की बजाय पूना पैक्ट में आरक्षित सीटों की संख्या बढ़ा कर 148 करवा ली। साथ ही अछूत लोगो के लिए प्रत्येक प्रांत में शिक्षा अनुदान में पर्याप्त राशि नियत करवाईं और सरकारी नौकरियों से बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग के लोगों की भर्ती को सुनिश्चित किया। इस समझौते पर हस्ताक्षर करके बाबासाहब ने गांधी को जीवनदान दिया। आम्बेडकर इस समझौते से असमाधानी थे, उन्होंने गांधी के इस अनशन को अछूतों को उनके राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने और उन्हें उनकी माँग से पीछे हटने के लिये दवाब डालने के लिये गांधी द्वारा खेला गया एक नाटक करार दिया। 1942 में आम्बेडकर ने इस समझौते का धिक्कार किया, उन्होंने ‘स्टेट ऑफ मायनॉरिटी’ इस अपने ग्रंथ में भी पूना पैक्ट संबंधी नाराजगी व्यक्त की है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें