मंगलवार, 17 अगस्त 2021

Constitutional Development in India

                                                Now Indian Polity      

                  भारतीय संविधान के विकास का संक्षिप्त इतिहास

1757 ई. की प्लास की लड़ाई और 1764 ई. बक्सर के युद्ध को अंग्रेजों द्वारा जीत लिए जाने के बाद बंगाल पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने शासन का शिकंजा कसा.  इसी शासन को अपने अनुकूल बनाए रखने के लिए अंग्रेजों ने समय-समय पर कई एक्ट पारित किए, जो भारतीय संविधान के विकास की सीढ़ियां बनीं. 

हर संविधान एक-सजीव दस्तावेज होता है; क्योंकि समय के साथ-साथ उसका विकास होता रहता है । नयी परिस्थितियां या समय की आवश्यकताओं को देखते हुए उसके प्रावधानों में संशोधन होते रहते हैं ।

धीरे-धीरे वह इतना बदल जाता है कि यदि संविधान निर्माताओं को किसी जादुई या चमत्कारी तरीके से जीवित किया जाये तो कदाचित्, वे अपनी रचना को पहचान नहीं सकेंगे । इस सम्बन्ध में हम संवैधानिक संशोधन प्रशासन के महत्त्वपूर्ण आदेशों संसद के प्रमुख-कानूनों अदालतों के अग्रणी फैसलों तथा अलिखित प्रथाओं का हवाला दे सकते हैं, जो मिलकर देश की संवैधानिक व्यवस्था की रचना करते हैं ।

i. संवैधानिक संशोधन:

सबसे पहले हम संवैधानिक संशोधन को लेते हैं, जिन्होंने उसके मूल पाठ को काफी हद तक बदला है । 1951 में पहला संशोधन हुआ, जिसने अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन-जातियों तथा अन्य पिछड़े व दुर्बल वर्गों के कल्याण हेतु सुरक्षात्मक भेदभाव की व्यवस्था की ।

इसे सामाजिक न्याय के आधार पर उचित ठहराया गया । 1956 के सातर्वे संशोधन ने राज्यों का पुनर्गठन किया । 1963 के पन्द्रहवें संशोधन ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की अवकाश आयु को 62 से 65 वर्ष किया तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की अवकाश आयु 60 से 62 वर्ष निश्चित की ।

1971 के 26वें संशोधन ने पूर्व रियासतों के नरेशों की वार्षिक पेंशन (Privy Purse) तथा विशेषाधिकार समाप्त किये । 1976 के 42वें संशोधन ने यह बाध्यकारी कर दिया कि राष्ट्रपति अपने मन्त्रिपरिषद् के परामर्श से काम करें ।

1978 के व्यर्थ में संशोधन ने सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को साधारण अधिकार में परिणीत कर दिया । 1985 के 52वें संशोधन ने दलबदल को वर्जित किया । 1992 के वे संशोधन ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा दिया ।

इसी वर्ष के वे संशोधन ने नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा सुनिश्चित किया । 2003 के 91 वें संशोधन ने केन्द्रीय व राज्यों के मन्त्रिपरिषदों के आकार को सीमित किया । इसी वर्ष के 74वें संशोधन ने डोगरी, बोडो, संथाली व मैथिली भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया ।

संक्षेप में इन संशोधनों ने संविधान की अनेक व्यवस्थाओं को बदला है । 1973 के केशवानन्द भारती केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह व्यवस्था दी है कि संविधान में कोई ऐसा संशोधन नहीं किया जा सकता जो उसके आमूल ढांचे को बदले या विकृत करे ।

ii. महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक आदेश:

समय-समय पर कार्यपालिका की ओर से आदेश जारी होते रहते हैं, जो संवैधानिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं । उदाहरण के लिए 1954 में राष्ट्रपति ने एक आदेश जारी किया जिसके तहत सर्वोच्च न्यायालय निर्वाचन आयोग व भारत के महालेखा नियन्त्रक परीक्षक के क्षेत्राधिकार को जम्मू-कशमीर पर लागू कर दिया गया ।

1969 में राष्ट्रपति ने अपने आदेशानुसार पश्चिमी बंगाल राज्य में संकटकाल की घोषणा की तथा वहां के सभापति को भी पदमुक्त कर दिया, जो अनुच्छेद 179(c) के प्रतिकूल था; क्योंकि विधानसभा के  भंग होने के बावजूद नयी विधानसभा की पहली बैठक के समय तक सभापति अपने पद पर बना रहता है । संघ शासित क्षेत्रों तथा अनुसूचित व जन-जातीय क्षेत्रों का प्रशासन भी राष्ट्रपति द्वारा जारी किये गये आदेशों व निदेशों के अनुसार चलता है ।

iii. प्रमुख संसदीय कानून:

संविधान के अनुच्छेदों की परिपूर्ति करने हेतु समय-समय पर संसद कानून बनाती है । उदहारण के लिए 1952 के राष्ट्रपति व उप-राष्ट्रपति चुनाव कानून के अनुसार राष्ट्रपति का चुनाव किया जाता है । 1969 में राष्ट्रपति (कृत्य निष्पादन) कानून बना, जिसमें यह व्यवस्था की गयी है कि यदि राष्ट्रपति का पद किसी कारणवश रिक्त हो जाये और उप-राष्ट्रपति न हो तो सर्वोच्च न्यायालय का प्रधान न्यायाधीश कार्यवाहक राष्ट्रपति के पद पर काम करेगा और यदि वह भी न हो तो सर्वोच्च न्यायायल का सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश यह काम करेगा ।

1969 में संसद ने न्यायाधीशों की जांच-पड़ताल का कानून बनाया, जिसमें महाभियोग की प्रक्रिया दी गयी है । संसद व राज्यों के विधानमण्डलों के चुनाव 1951 के जनप्रतिनिधित्व अधिनियम (समय-समय पर संशोधित) के अनुसार किये जाते हैं ।

1956 के अन्तर्राज्यीय जल विवाद कानून के अनुसार एक न्यायाधिकारण की स्थापना की जाती है, जो राज्यों के बीच नदियों के पानी के प्रयोग व वितरण सम्बन्धी विवादों को निपटाता है । संसद अपने कानून से सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या बढ़ा सकती है ।

संसद के 1962 के परिसीमन आयोग कानून के अनुसार परिसीमन आयोग का गठन होता है, जो लोकसभा व विधानसभाओं के लिए चुनाव क्षेत्र का मानचित्र बनाता है । संक्षेप में संसद के कानून उन धुंदले या खाली क्षेत्रों को भरते हैं, जहां संविधान के अनुच्छेदों द्वारा स्थापित व्यवस्था स्पष्ट नहीं होती ।

iv. अग्रणी अदालती फैसले:

समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय व राज्यों के उच्च न्यायालय संविधान के प्रावधानों की व्याख्या या पुनर्व्याख्या करते हैं या अपनी व्यवस्था देते हैं, जो कानून की तरह बाध्यकारी होती है । उदाहरण के लिए 1973 के केशवानन्द भारती केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह महत्त्वपूर्ण व्यवस्था दी कि संविधान में कोई ऐसा संशोधन नहीं किया जा सकता जो उसके आमूल ढांचे को बदले या बिगाड़े ।

1963 के बालाजी केस में न्यायालय ने यह महत्त्वपूर्ण व्यवस्था दी कि अनुसूचित  जातियों अनुसूचित जन-जातियों या सामाजिक व शैक्षिक दृष्टि से पिछड़े अन्य वर्गों के कल्याण के लिए राजकीय या मान्यता प्राप्त शिक्षा संस्थाओं या लोक सेवाओं में स्थानों का आरक्षण किया जाना चाहिए । 1992 के इन्द्रा साहनी या मण्डल केस में सुप्रीम कोर्ट ने इसी निर्णय को बरकरार रखा ।

उसने प्रधानमन्त्री वी॰पी॰ सिंह के आदेश को वैध ठहराया जिसने अन्य पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ दिया था; क्योंकि 225 प्रतिशत आरक्षण की व्यावस्था चली आ रही थी लेकिन उसने प्रधानमन्त्री नरसिंह राव के आदेश को अवैध करार दिया जिसके तहत आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों को अतिरिक्त 10 प्रतिशत स्थानों का आरक्षण दिया गया था ।

1994  में, बोम्मई केस में सर्वोच्च न्यायालय ने यह महत्त्वपूर्ण व्यवस्था दी कि यदि अनुच्छेद 356 के तहत किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है, तो न्यायालय राष्ट्रपति की घोषणा की समीक्षा कर सकती है कि कहीं संविधान के नाम पर कोई धोखाधड़ी तो नहीं की गयी है । संक्षेप में सर्वोच्च न्यायालय संविधान का प्रहरी है और उसे भारत की कार्यरत संविधान सभा कहा जा सकता है ।

v. महत्त्वपूर्ण प्रथाएं:

समय के साथ कुछ प्रथाएं बन जाती हैं, जिनका बार-बार प्रयोग होने से वे बहुत मजबूत हो जाती है । इन्हें संविधान के अलिखित नियम कहा जाता है । इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध विधिविद ए॰वी॰ डायसी के अनुसार, “प्रथाओं का वही सम्मान होता है, जो कानूनों का; क्योंकि लोग व्यवहार में दोनों के बीच अन्तर नहीं समझते ।”

हर देश में संवैधानिक प्रथाओं की मान्य स्थिति को देखा जा सकता है । भारत में भी ऐसी बहुत-सी प्रथाएं पक्की हो चुकी हैं । उदाहरण के लिए यदि राष्ट्रपति उत्तर भारत का है, तो उप-राष्ट्रपति दक्षिण भारत-होना चाहिए ।

संसद की लोक लेखा समिति का अध्यक्ष किसी विपक्षी दल का का होना चाहिए । राज्यपाल किसी अन्य राज्य का स्थायी निवासी होना चाहिए । वरिष्ठता के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में प्रधान न्यायाधीश की नियुक्ति की जानी चाहिए ।

फरवरी के अन्तिम सप्ताह में लोकसभा में बजट पेश किया जाता है, पहले रेलवे बजट आता है, बाद में सामान्य बजट । इन अग्रणी प्रथाओं को संविधान के लिखित प्रावधानों की मान्यता दी जाती है । अत: हम कह सकते हैं कि हमारा संविधान भारत का संविधान है, लेकिन अन्य तत्त्वों ने उसके प्रावधानों की अपने तरीकों से परिपूर्ति की है, जिससे हमारी संवैधानिक व्यवस्था की रचना हुई है । हमारा सरोकार मात्र संविधान के मूल पाठ से नहीं है, बल्कि उसके अभिन्न रूप में सम्बद्ध अन्य तत्त्वों से भी है, जिनके अध्ययन के आधार पर भारतीय संवैधानिक व्यवस्था की रचना हुई है ।

संविधान के निरन्तर विकास का क्रम चल रहा है, जिसे इसे एक सजीव दस्तावेज की सज्ञा दी जा सकती है । हमें संविधान सभा के अस्थायी सदस्य सच्चिदानन्द सिन्हा के यह शब्द याद रखने चाहिए : ”यदि लोग अपने संविधान से खिलवाड़ करेंगे तो वह संविधान जीवित नहीं रह सकता ।”


कोई टिप्पणी नहीं:

मौलिक कर्त्तव्य

                                  मौलिक कर्त्तव्य चर्चा में क्यों? भारत सरकार ने संविधान दिवस की 70वीं वर्षगाँठ के अवसर पर ‘संविधान से समरसत...